वायु प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है जो कि कई गंभीर बीमारियों का कारण बनता है। एक नई रिसर्च में शोधकर्ताओं ने पाया कि जो लोग खाना पकाते समय बायोमास ईंधन (जैसे कि लकड़ी जलाना) का इस्तेमाल करते हैं, उनके लिए ये काफी हानिकारक है। शोधकर्ताओं के मुताबिक लकड़ी जलाने से विशेष प्रकार के प्रदूषक और जीवाणु विषाक्त पदार्थों का उत्सर्जन होता है और इस दौरान सांस लेने से व्यक्ति के फेफड़ों को काफी नुकसान होने का खतरा है। रिसर्च के मुताबिक शोधकर्ताओं को सीटी स्कैन के साथ एडवान्स तस्वीर में इस बात के साक्ष्य मिले हैं। इस अध्ययन को नॉर्थ अमेरिका के रेडियोलॉजिकल सोसायटी (आरएसएनए) की वार्षिक मीटिंग में पेश किया गया है।

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रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी बायोमास ईंधन की मदद से खाना पकाती है। आंकड़ों पर ध्यान दें तो पता चलता है कि विश्वभर में लगभग 300 करोड़ (3 अरब) लोग खाना बनाने के लिए बायोमास फ्यूल, जैसे कि लकड़ी या सूखी झाड़ियों का उपयोग करते हैं। लेकिन इससे होने वाला नुकसान भी इतना ही बड़ा है। रिपोर्ट से पता चलता है कि बायोमास फ्यूल के साथ खाना पकाने से काफी मात्रा में प्रदूषक पदार्थ निकलते हैं और घरेलू वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारियों की वजह बनते हैं। इससे एक वर्ष अनुमानित 40 लाख (4 मिलियन) लोगों की मौत होती है।

हालांकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल के जरिए लोगों को बायोमास फ्यूल की जगह लिक्विफाइ पेट्रोलियम गैस की सहायता भी दी गई। लेकिन बावजूद इसके काफी संख्या में लोगों ने लकड़ी जलाकर खाना पकाना जारी रखा। देखा जाए तो इसके पीछे वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ बायोमास ईंधन के जरिए पकाया गया खाना खाने की आदत संबंधी फैक्टर हो सकते हैं। इसके अलावा धुएं से फेफड़ों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की कम जानकारी भी एक कारण है। कैलिफोर्निया के सैन डिएगो स्कूल ऑफ मेडिसिन के पोस्टडॉक्टरोलॉजिस्ट शोधकर्ता अभिलाष किज़हके पुलियाकोटे का कहना है कि बायोमास ईंधन उत्सर्जन के लिए क्रोनिक एक्सपोज़र की प्रतिक्रिया में विकसित होने वाले शुरुआती परिवर्तनों का पता लगाना और समझना महत्वपूर्ण है।

अमेरिका की आयोवा यूनिवर्सिटी में पीएचडी, एरिक ए हॉफमैन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टीम ने भारत के पेरियार मणियामई इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं के सहयोग से एक रिसर्च की। इस दौरान तंजावुर में लिक्विफाइ पेट्रोलियम गैस और बायोमास ईंधन (लकड़ी) से खाना पकाने वाले 23 लोगों की रसोई में प्रदूषकों के प्रभाव की जांच की गई। शोधकर्ताओं ने घरों में प्रदूषकों के प्रभाव को मापा और फिर स्पाइरोमेटरी जैसे पारंपरिक टेस्ट का उपयोग करते हुए, व्यक्तिगत रूप से लोगों के फेफड़ों की कार्य क्षमता का अध्ययन किया। उन्होंने जांच से जुड़े परिणाम को जानने के लिए एडवांस सीटी स्कैनिंग का भी उपयोग किया- उदाहरण के लिए, उन्होंने एक स्कैन उस वक्त किया, जब इंसान सांस लेता है और दूसरा सांस छोड़ने के बाद। इस बीच फेफड़े कैसे काम कर रहे थे, यह देखने के लिए स्कैन की गई तस्वीरों के बीच के अंतर की जांच की गई।

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विश्लेषण से पता चला है कि लकड़ी से संबंधी बायोमास ईंधन के साथ खाना पकाने वाले लोगों में लिक्विफाइ पेट्रोलियम गैस का इस्तेमाल करने वालों की तुलना में प्रदूषक और बैक्टीरिया एंडोटॉक्सिन के अधिक संपर्क में थे। उनके फेफड़ों में एयर ट्रैपिंग का एक उच्च स्तर भी दिखाई दिया, जो कि फेफड़ों की बीमारियों से जुड़ी एक स्थिति है। डॉ. किज़हके पुलियाकोटे के मुताबिक "एयर ट्रैपिंग तब होता है जब फेफड़े का एक हिस्सा पर्यावरण से मिलने वाली हवा का आदान-प्रदान करने में असमर्थ होता है। इसलिए अगली बार जब व्यक्ति सांस लेता है, तो उसको उस क्षेत्र में पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और कार्बन डाइऑक्साइड खत्म हो जाती है। इस तरह फेफड़े का वो हिस्सा हवा का आदान-प्रदान करने में असमर्थ या खराब हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने बायोमास उपयोगकर्ताओं का एक छोटा उपसमूह पाया, जिनमें अन्य बायोमास उपयोगकर्ताओं की तुलना में बहुत अधिक एयर ट्रैपिंग और असामान्य टिशूज मकैनिक्स (ऊतक यांत्रिकी) का स्तर था। समूह के लगभग एक-तिहाई से ज्यादा लोगों में 50 फीसद से अधिक हवा उनके फेफड़ों में फंस गई। डॉ किज़हके पुलियाकोटे का कहना है, "एक उपसमूह में बढ़ी हुई संवेदनशीलता अन्य अध्ययनों में धूम्रपान करने वालों में भी नजर आयी है। यही नहीं कुछ लोग आनुवंशिक आधार पर भी पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।"

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अध्ययन ग्रुप में एंफीसीमा की कमी का मतलब एक ऐसी स्थिति से है, जिसमें बायोमास का धुआं फेफड़ों के छोटे-छोटे वायुमार्गों को अवरुद्ध कर देता है। डॉ. किज़हके पुलियाकोटे कहते हैं इसे समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।

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