डिप्रेशन (अवसाद) एक ऐसा रोग है जिससे दुनियाभर में लोग जूझ रहे हैं। इस रोग के कई ऐसे लक्षण होते हैं जिन्हें पहचान पान मुश्किल होता है, खासतौर से भारत जैसे देश में, जहां डिप्रेशन को दिमागी बीमारी मान लिया जाता है और इसको शर्म के साथ भी जोड़ा जाता है। जबकि असल में यह स्ट्रेस और तनाव से जुड़ी एक स्थिति है, जिसका सही समय पर इलाज करवाना आवश्यक होता है अन्यथा यह सच में किसी बड़े मानसिक रोग का रूप ले सकता है।

भारत में हर साल डिप्रेशन के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार इस समय भारत का हर 5वां व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार है। एमपावर (एक भारतीय ऑर्गेनाइजेशन है जो भारत में डिप्रेशन से ग्रस्त लोगों की मदद करती है) कंपनी की फाउन्डर और चेयरपर्सन नीरजा बिरला ने अपने हाल ही में एक कॉन्फ्रेंस में बताया कि भारत में मानसिक रोगों से सबसे ज्यादा युवा ही जूझ रहे हैं। उन्होंने आशंका जताई कि अगर इस पर काबू नहीं पाया गया तो 2030 तक अवसाद एक भयंकर बीमारी का रूप ले सकता है।

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इन लोगों पर पड़ता है ज्यादा असर
नीरजा के अनुसार प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारियों में डिप्रेशन के आंकड़े सबसे अधिक हैं। भारत में काम करने वाले व्यक्तियों में से करीब 42.5 फीसदी लोग डिप्रेशन का शिकार हैं। 2014 के अनुसार भारत में 48 करोड़ 70 लाख कर्मचारी थे, जो आंकड़े अब और अधिक बढ़ चुके हैं। इन आंकड़ों कि मानें तो करीब 20 करोड़ 69 लाख कर्मचारी अवसाद का शिकार हो सकते हैं। 

20.6 करोड़ एक बहुत बड़ा आंकड़ा है, जिसे कम करने और लोगों तक इलाज पहुंचाने के लिए सरकार और संस्थाओं द्वारा कई कोशिशें जारी हैं। देश के 94 प्रतिशत कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जिनमें घरेलू काम काज से लेकर गली-मोहल्लों में चलने वाली फैक्ट्रियों में काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर भी शामिल हैं। इस सेक्टर के लोग गरीबी और कम आय के चलते संगठित संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों के मुकाबले और अधिक प्रभावित होते हैं।

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मनोचिकित्सकों की कमी
सामान्य से लेकर गंभीर अवसाद का भी इलाज मुमकिन है। इसके इलाज के लिए मरीज को मनोचिकित्सक के पास जाना होता है, जो कि स्थिति के अनुसार परामर्शदाता से मिलने की सलाह और कुछ दवाएं देते हैं। इतने बड़े पैमाने पर लोगों को इलाज मुहैया करवाने के लिए देश में बेहद कम मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं।

अंडकों की मानें तो इस समय भारत में केवल 9000 मनोचिकित्सक हैं। इस रोग के इलाज के लिए देश में जरूरत के अनुसार बेहद कम मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं। अनुमान लगाया जाए तो 1 लाख की आबादी पर कम से कम 3 मानिचिकित्सक होने चाहिए। हालांकि, अधिक आय वाले देशों में 1 लाख लोगों के लिए 6 मनोचिकित्सक मौजूद होते हैं।

भारत में यह जरूरत कहीं भी पूरी होती नजर नहीं आ रही है। देश में एक लाख मरीजों पर 0.75 मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं। यानि देश में इस वक्त भी करीब 27000 विशेषज्ञों की कमी है, जो अवसाद के इलाज में एक सबसे बड़ी विफलता है।

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अवसाद के इलाज का खर्च
वैसे तो अवसाद के इलाज का शुल्क आपकी स्थिति पर निर्भर करता है कि वह कितनी गंभीर और पुरानी है। फिर भी सामान्य तौर पर मनोचिकित्सक से इलाज करवाने में 4 से 6 हजार रुपये प्रतिमाह खर्च आ सकता है। भारत के अधिकतर मनोचिकित्सक एक सीटिंग के 800 से 1200 रुपये लेते हैं। इस इलाज के दौरान यह आप पर निर्भर करता है कि आप अवसाद से कितनी जल्दी बाहर आ पाते हैं।

अधिकतर मामलों में मनोचिकित्सक मरीज को किसी परामर्शदाता से मिलने की सलाह देते हैं। इसमें भी एक सीटिंग का शुल्क 800 से 1200 रुपये होता है। भारत जैसे कम आय वाले देश में मनोचित्सकों की मोटी फीस चुका पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। ऐसे में सैकड़ों लोग बिना इलाज के अवसाद के साथ जीने को मजबूर होते हैं।

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