सेरोलॉजी एक खास तरह का टेस्ट है जिसे व्यक्ति के शरीर में किसी खास रोगाणु के खिलाफ बनने वाले एंटीजेन या एंटीबॉडीज की मौजूदगी का पता लगाने के लिए किया जाता है। सेरोलॉजी- ये शब्द 'सीरम' शब्द से बना है जो खून का तरल हिस्सा होता है और खून में से फाइब्रिनोजेन (क्लॉटिंग प्रोटीन) को हटाने के बाद बचता है। वैसे तो सेरोलॉजी टेस्ट आमतौर पर ब्लड सैंपल का इस्तेमाल करके ही किया जाता है लेकिन कई बार दूसरे तरल पदार्थ जैसे- यूरिन और सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूइड का भी इस्तेमाल इस टेस्ट में होता है।   

एंटीजेन, बाहरी तत्व होते हैं जिसमें रोगाणु, सूक्ष्मजीवों से जुड़े विषैले तत्व, धूल और एलर्जी पैदा करने वाले तत्व भी शामिल हैं। कई बार हमारा शरीर, अपनी ही स्वस्थ कोशिकाओं को एंटीजेन मान लेता है और उन पर ही हमला करने लगता है- ऐसी स्थिति में व्यक्ति ऑटोइम्यून बीमारियों का शिकार हो जाता है। एंटीबॉडीज वे प्रोटीन हैं जिन्हें हमारा इम्यून सिस्टम इसलिए बनाता है ताकि वे एंटीजेन से लड़ें और उन्हें शरीर से बाहर कर दें। 

(और पढ़ें : कोविड-19 से लड़ने के लिए मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का महत्व)

अलग-अलग तरह का सेरोलॉजी टेस्ट होता है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस चीज का टेस्ट किया जा रहा है- एंटीजेन का, एंटीबॉडी का और कैसे। सेरोलॉजी टेस्ट खासकर एंटीबॉडी टेस्ट का बड़े पैमाने पर और व्यापक रूप से इस्तेमाल हो रहा है ताकि कोविड-19 के अलक्षणी यानी एसिम्पटोमैटिक मामलों की पहचान हो सके और साथ ही कॉन्वलेसेंट प्लाज्मा थेरेपी के लिए उम्मीदवारों का भी चयन किया जा सके। कॉन्वलेसेंट प्लाज्मा थेरेपी में रिकवर हुए मरीजों के शरीर से एंटीबॉडीज लेकर वैसे मरीजों के शरीर में डाला जाता है जिनमें ऐक्टिव संक्रमण होता है ताकि बीमारी को नियंत्रित किया जा सके। 

सेरोलॉजी टेस्ट कैसे होता है और इसे कैसे किया जाता है, इस बारे में आगे पढ़ें।

  1. एंटीबॉडीज के प्रकार और प्रतिरक्षा यानी इम्यून प्रतिक्रिया - Types of antibodies and immune response in hindi
  2. सेरोलॉजी टेस्ट के प्रकार - Serology test types in hindi
  3. सेरोलॉजी टेस्ट क्यों किए जाते हैं? - Why are serology tests done in hindi?
  4. लैब में सेरोलॉजी टेस्ट के नतीजों को कैसे देखा जाता है? - How are serology results seen in a lab in hindi?
  5. कोविड-19 के लिए सेरोलॉजी टेस्ट - Serology tests for COVID-19 in hindi
  6. सेरोलॉजी टेस्ट की सीमाएं - Serology tests limitations in hindi
सेरोलॉजी टेस्ट के डॉक्टर

जब भी हमारा इम्यून सिस्टम यानी प्रतिरक्षा प्रणाली किसी नए रोगाणु (बैक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि) के संपर्क में आता है तो वह खास तरह के एंटीबॉडीज का निर्माण करता है ताकि उस रोगाणु को निशाना बनाया जा सके। इंसान के शरीर में 5 अलग-अलग तरह के एंटीबॉडीज होते हैं- IgA, IgG, IgM, IgE, IgD. ये सभी एंटीबॉडीज वाई आकार के प्रोटीन कॉम्प्लेक्स होते हैं जिसमें 2 भारी चेन होते हैं और 2 हल्के चेन। इन चारों चेन में न-बदलने वाला क्षेत्र (एफसी रीजन) और एक बदलने वाला क्षेत्र (फैब रीजन) होता है।

एंटीबॉडीज इस बदलने वाले क्षेत्र का इस्तेमाल करके ही अलग-अलग एंटीजेन की पहचान करने और उससे बांधने में इस्तेमाल करती हैं। यह परिवर्तनशील स्थिति विशिष्ट रूप से एंटीजेन तक ही सीमित है लेकिन कई बार किसी एंटीजेन के लिए बनी एंटीबॉडी दूसरे एंटीजेन के साथ भी क्रॉस-रिऐक्ट कर सकती है। ऐसा तब होता है जब 2 एंटीजेन की सरंचना एक जैसी होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर वैसे रोगाणु जिसकी वजह से दो अलग-अलग बीमारियां होती हैं वे एक समान हों तो वही एक एंटीबॉडी दोनों के खिलाफ असरदार साबित हो सकती है। 

(और पढ़ें : कोविड-19 मरीजों को दी जाने वाली पैसिव ऐंटीबॉडी थेरेपी क्या है)

IgM एंटीबॉडी, संक्रमण होने पर बनने वाली सबसे पहली एंटीबॉडी है। हालांकि IgG एंटीबॉडी सबसे कॉमन एंटीबॉडी है और यह लंबे समय तक इम्यूनिटी बनाए रखने के लिए जिम्मेदार मानी जाती है। संक्रमण ठीक होने के लंबे समय बाद भी एंटीबॉडीज हमारे खून में मौजूद रहता है। लिहाजा सेरोलॉजी टेस्ट का इस्तेमाल कर ये पता लगाया जा सकता है कि क्या मरीज रोगाणु के संपर्क में हाल ही में आया है या पहले कभी। सेरोलॉजी टेस्ट के जरिए ऑटोइम्यून बीमारियों का भी पता लगाया जा सकता है। ये एक ऐसी स्थिति है जिसमें आपके शरीर का इम्यून सिस्टम गलती से शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं के खिलाफ ही एंटीबॉडीज बनाने लगता है। 

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सेरोलॉजिकल टेस्ट एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है। जब कोई एंटीबॉडी किसी खास एंटीजेन की पहचान करता है तो वह उस एंटीजेन के साथ खुद को बांध लेता है ताकि वह उसे बेअसर कर सके और इस प्रतिक्रिया को लैब में अलग-अलग तरीके से देखा जा सकता है जैसे- अवक्षेपण, संलग्नता या रंग में बदलाव आदि। अवक्षेपण में किसी चीज को शांत होते या नीचे बैठते हुए देखा जा सकता है। संलग्नता में अणु या टुकड़ों को एक साथ गुच्छे में आते हुए देखा जा सकता है और रंग में बदलाव के दौरान टेस्ट रिजल्ट का रंग बदल जाता है। 

दिए गए सैंपल में किस चीज की खोज की जा रही है- एंटीजेन की या एंटीबॉडी की इसके आधार पर ही सेरोलॉजी टेस्ट 2 तरह का होता है:

प्रत्यक्ष (डाइरेक्ट) सेरोलॉजिकल टेस्ट : इस टेस्ट में एंटीसीरम (किसी एंटीजेन या रोगाणु के खिलाफ बनने वाले एंटीबॉडी से युक्त सीरम) का इस्तेमाल होता है ताकि मरीज के खून या बॉडी फ्लूइड में एंटीजेन की मौजूदगी की खोज की जा सके।
उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप किसी व्यक्ति के खून में वायरस ए की खोज कर रहे हैं तो आप ऐसे एंटीसीरम का इस्तेमाल करेंगे जिसमें एंटी-ए एंटीबॉडीज हों। ऐसे में अगर सैंपल में वायरस ए मौजूद होगा तो एंटीजेन-एंटीबॉडी रिऐक्शन देखने को मिलेगा।

अप्रत्यक्ष (इनडाइरेक्ट) सेरोलॉजिकल टेस्ट : इस तरह के टेस्ट में मरीज के सीरम में एंटीबॉडीज मौजूद हैं या नहीं इसकी खोज की जाती है। टेस्ट के दौरान मरीज के सीरम को लैब में किसी निश्चित एंटीजेन से एक्सपोज किया जाता है। ऐसे में अगर मरीज के सीरम में एंटीजेन के खिलाफ खास तरह की एंटीबॉडीज हैं तभी प्रतिक्रिया होगी वरना नहीं होगी।

किसी व्यक्ति के खून या किसी और बॉडी फ्लूइड में खास तरह के एंटीजेन या एंटीबॉडी की पहचान करने के लिए सेरोलॉजी टेस्ट किया जाता है। इस तरह के टेस्ट के जरिए कई तरह की संक्रामक बीमारियों का पता लगाया जा सकता है:

सेरोलॉजिकल टेस्ट IgE एंटीबॉडीज की खोज के लिए भी किया जाता है। IgE एंटीबॉडीज व्यक्ति के खून में सबसे ज्यादा मात्रा में तब पाए जाते हैं जब उस व्यक्ति के शरीर में एलर्जी से जुड़ा कोई रिऐक्शन या पैरासाइट से होने वाला इंफेक्शन होता है। ऑटोइम्यून बीमारियों के मामले में शरीर के खास तरह के उत्तकों के खिलाफ जो निश्चित एंटीबॉडीज बन रही हैं उनका भी सेरोलॉजी टेस्ट के जरिए पता लगाया जाता है। उदाहरण के लिए- एंटी-डीएसडीएनए एंटीबॉडी टेस्ट के जरिए लुपस का पता लगाया जाता है। एंटी-डीएसडीएनए एंटीबॉडीज एक तरह की ऑटोएंटीबॉडीज (वैसी एंटीबॉडी जो शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला करती है) है जो कोशिकाओं के अंदर मौजूद डीएनए को निशाना बनाती है।

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इस टेस्ट को करने के लिए सबसे पहले लैब टेक्नीशियन आपकी बाजू की नसों से खून निकालते हैं। एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को देखने के लिए लैब्स में निम्नलिखित टेक्नीक का इस्तेमाल किया जाता है:

अवक्षेपण या प्रीसिपिटेशन : अवक्षेपण की प्रतिक्रिया में घुलनशील एंटीजेन और एंटीबॉडी एक दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करते हैं ताकि एक ठोस गाद जैसी चीज का निर्माण कर सकें जिसे नंगी आंखों से भी आसानी से देखा जा सकता है। इस पद्धति में तलहट में जमा गाद जैसी चीज सिर्फ तभी नजर आती है जब टेस्ट पॉजिटिव होता है। 

अवक्षेपण की प्रतिक्रिया को किसी फ्लूइड सॉलूशन या जेल फेज में किया जाता है। इसमें एंटीजेन फ्लूइड सॉलूशन के लेयर को एंटीबॉडी सॉलूशन के ऊपर या फिर एंटीबॉडी सॉलूशन के लेयर को एंटीजेन सॉलून के ऊपर डाला जाता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि मरीज के खून के सीरम में किसकी मौजूदगी की जांच हो रही है एंटीजेन की या एंटीबॉडी की। 

ये दोनों लेयर मिक्स हो जाती हैं और एंटीजेन और एंटीबॉडीज अगर मौजूद हैं तो वे निष्क्रिय प्रसार के जरिए एक दूसरे की तरफ यात्रा करते हैं। इसके बाद अगर किसी तरह का गाद जमा होता है तो वह दोनों सॉलूशन के बीच में कहीं नजर आने लगता है, कहीं भी जहां एंटीजेन और एंटीबॉडीज बराबर मात्रा में मौजूद होते हैं। जिस हिस्से में एंटीजेन या एंटीबॉडी की अधिकता होगी वहां पर कोई भी जमा गाद नजर नहीं आएगा। 

जेल फेज अवक्षेपण भी निष्क्रिय प्रसार पद्धति है। इसमें एगारोज जेल को पेट्री प्लेट में डाला जाता है और फिर जेल में अलग-अलग कुआं या कूप बनाए जाते हैं। बीच वाले कूप में एंटीजेन या एंटीबॉडी सॉलूशन डाला जाता है और उसके विपरित सॉलूशन को आसपास के बाकी कूपों में डाला जाता है। यह सॉलूशन जेल से होता हुआ सफर करेगा और तुल्यता या समानता के क्षेत्र में अवक्षेपण की रेखाएं बनेंगी। 

जेल फेज के एक दूसरे अवक्षेपण में जेल में एंटीसीरम डाला जाता है, इससे पहले कि वह ठोस बन जाए एंटीजेन सॉलूशन को खोदे गए कूप या कुएं में। समानता के क्षेत्र के आसपास मौजूद कुओं में अवक्षेपण होता है। बाद वाली इस पद्धति को इम्यूनोडीफ्यूजन कहते हैं और पहले वाली पद्धति को ऑक्टरलूनी टेक्नीक। 

अवक्षेपण का एक और तरीका है जिसे इलेक्ट्रोडिफ्यूजन कहते हैं। इसमें एंटीजेन और एंटीबॉडी मॉलिक्यूल की गतिविधि किसी इलेक्टिक करेंट के असर के बाद होती है।

संलग्नता या अग्लूटनेशन : इस टेक्नीक में या तो एंटीजेन या एंटीबॉडी को किसी अणु या तत्व के साथ बांध दिया जाता है जैसे- लेटेक्स बीड, चार्कोल के टुकड़े या लाल रक्त कोशिकाएं और उसके बाद एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को देखा जाता है कि किसी तरह के गुच्छों का निर्माण हो रहा है या नहीं। 

उदाहरण के लिए- संलग्नता की प्रतिक्रिया जिसमें लेटेक्स बीड का इस्तेमाल होता है और व्यक्ति में एंटीबॉडीज की पहचान के लिए किया जा रहा है उसमें एंटीजेन को लेटेक्स बीड के साथ बांध दिया जाता है और उसके बाद उसे मरीज के सीरम से एक्सपोज किया जाता है। अगर टेस्ट एंटीजेन के खिलाफ सैंपल में एंटीबॉडीज हैं तो तत्वों द्वारा गुच्छा बनते हुए नंगी आंखों से साफ नजर आने लगेगा। 

संलग्नता की प्रतिक्रिया के लिए पूरे बैक्टीरिया या रोगाणु को एंटीजेन के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसा करने पर इसे प्रत्यक्ष संलग्नता कहा जाता है। अगर मरीज के सीरम में एंटीबॉडीज मौजूद हों तो वह बैक्टीरिया पर हमला कर गुच्छे बनाने लगेगा।

संलग्नता की प्रतिक्रिया अवक्षेपण की प्रतिक्रिया से ज्यादा संवेदनशील है। टेस्ट की संवेदनशीलता का मतलब है कि जिस इंफेक्शन के लिए टेस्ट किया जा रहा है उसकी सही-सही पहचान करने की कितनी क्षमता है इस टेस्ट में यानी यह टेस्ट सही मायने में ज्यादा पॉजिटिव नतीजे देगा और बेहद कम फॉल्स नेगेटिव। 

इम्यूनोएसेस : इम्यूनोएसेस में एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया का इस्तेमाल कर दिए गए सैंपल में एंटीजेन या एंटीबॉडी की मात्रा निर्धारित करता है। इम्यूनोएसेस के निम्नलिखित प्रकार हैं:

एलिसा : एन्जाइम लिंक्ड इम्यूनोसॉर्बेंट एसे (एलिसा) में एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया होने पर एक रंग उत्पन्न करने के लिए एन्जाइम का इस्तेमाल किया जाता है। यह एन्जाइम या तो एंटीजेन से लिंक्ड होता है या फिर एंटीबॉडी से। यह इस बात पर निर्भर करता है कि दिए गए सैंपल में किस चीज को चेक किया जा रहा है। एलिसा में इस्तेमाल होने वाले कुछ एन्जाइम्स में ऐल्कलाइन फॉस्फेटेस और हॉर्सरैडिश पेरॉक्सिडेज शामिल है। 

एंटीबॉडी की पहचान के लिए इस तरह से होता है एलिसा टेस्ट : इस टेस्ट के लिए माइक्रोटिटर प्लेट (जिसमें बहुत सारे छोटे-छोटे कूप या कूएं होते हैं) का इस्तेमाल होता है जिसमें उस विशेष एंटीजेन (जिसके खिलाफ एंटीबॉडी की जांच की जानी है) को अटैच किया जाता है। उसके बाद मरीज के सीरम को कूएं में डाला जाता है। अगर सीरम में एंटीजेन के खिलाफ एंटीबॉडीज हैं तो एंटीजेन-एंटीबॉडी प्रतिक्रिया होगी। किसी भी तरह के फ्री एंटीबॉडी को खास तरह के सॉलूशन की मदद से प्लेट से हटा दिया जाता है। अब एन्जाइम-लिंक्ड एंटीबॉडी को प्लेट में डाला जाता है। यह एंटीबॉडी उस एंटीबॉडी से असामान्य है जिसे सैंपल में खोजना है। अगर पहली एंटीबॉडी प्लेट में है तो यह दूसरी एंटीबॉडी खुद को उससे बांध लेगी। सभी तरह की सेकंडरी एंटीबॉडीज बाहर हो जाएंगी। इसके बाद एन्जाइम के सबस्ट्रेट को सॉलूशन में डाला जाएगा। एन्जाइम सबस्ट्रेट से प्रतिक्रिया करेगा और रंग बदलेगा अगर प्लेट में कोई सेकेंडरी एंटीबॉडी बची होगी। खास तरह के औजार की मदद से रंग के गाढ़ेपन को चेक किया जाता है ताकि एंटीबॉडी के लेवल को प्राप्त किया जा सके।

वेस्टर्न ब्लोटिंग : वेस्टर्न ब्लॉट भी एक और तरह का इम्यूनोएसे है जिसका इस्तेमाल कर दिए गए सैंपल में खास तरह के प्रोटीन की पहचान की जाती है। इस टेक्नीक में सॉलूशन में से प्रोटीन या एंटीजेन को पहले बिजली के करेंट के प्रभाव में अलग किया जाता है पॉलिऐक्रिलामाइड जेल में। इसके बाद जेल में से एंटीजेन को फिल्टर पेपर पर ट्रांसफर किया जाता है जो एलिसा माइक्रोटिटर प्लेट की तरह ठोस सतह बन जाता है। इसके बाद फिल्टर पेपर को एन्जाइम लिंक्ड एंटीबॉडीज से एक्सपोज किया जाता है। और सबसे आखिर में एन्जाइम के सबस्ट्रेट को सॉलूशन में ऐड किया जाता है। अगर एंटीबॉडीज खुद को एंटीजेन से बांध लेती हैं और धुलकर बाहर नहीं होती तो एन्जाइम सबस्ट्रेट के साथ प्रतिक्रिया करेगा और रंग उत्पन्न होगा। रंग कितना गाढ़ा है उसके हिसाब से पता चलेगा कि टार्गेन प्रोटीन सॉलूशन में कितनी मात्रा में मौजूद था।

इम्यूनोफ्लोरोसेन्स : किसी दिए गए सैंपल में खास तरह का एंटीजेन है या नहीं इसकी मौजूदगी के लिए इस्तेमाल होने वाला सबसे कॉमन टेक्नीक है। इसमें एंटीबॉडीज को खास तरह के फ्लोरोसेंट डाई से लेबल किया जाता है। अगर सैंपल में एंटीजेन मौजूद है तो यह एंटीबॉडीज उनके साथ खुद को बांध लेती हैं। इसके बाद एंटीजेन-एंटीबॉडी समूह को खास वेवलेंथ की लाइट से एक्सपोज किया जाता है जिसके बाद इनमें रोशनी दिखती है जिसे रंगीन लाइट की तरह देखा जा सकता है।

उदाहरण के लिए- एक डाई फ्लोरोसीन को जब नीली रोशनी से एक्सपोज किया जाता है तो यह पीली और हरी रोशनी छोड़ता है। इस पद्धति में एंटीजेन की मात्रा का पता नहीं चलता। हालांकि इम्यूनोफ्लोरोसेन्स की आधुनिक पद्धति में फ्लोरोसीन एक्टिवेटेड सेल सॉर्टर नाम के चेंबर का इस्तेमाल होता है। जब फ्लोरोएसेंस लेबल वाले एंटीजेन-एंटीबॉडी के समूह को इस मशीन से पार किया जाता है तो यह लेजर बीम को उस पर फ्लैश करता है और फ्लोरोएसेंस से लेबल किए गए हर एक सिंगल सेल की भी गिनती करता है।

मौजूदा समय में कोविड-19 के लिए की जाने वाली सेरोलॉजिकल टेस्टिंग इसलिए की जा रही है ताकि व्यक्ति के खून में सार्स-सीओवी-2 कोरोना वायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज की मौजूदगी का पता चल सके। सार्स-सीओवी-2 या सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस 2 ही वह रोगाणु है जिसकी वजह से कोविड-19 बीमारी होती है। किसी व्यक्ति को एंटीबॉडी टेस्ट करवाने के लिए कहा जा सकता है अगर:

  • आप रिकवर होने वाले मरीज हैं और एंटीबॉडी से भरपूर प्लाज्मा के संभावित डोनर हो सकते हैं।
  • आपके फिजिशयन को लगता है कि आप पहले वायरस से एक्सपोज हो चुके हैं और उस वक्त आपको बीमारी हुई होगी लेकिन आपका टेस्ट नहीं हुआ
  • आपका आरटी-पीसीआर टेस्ट नेगेटिव आता है लेकिन फिर भी आपके फिजिशियन को इस बात की पुष्टि करनी है कि आपको पहले इंफेक्शन हुआ था या नहीं

अगर पहले कभी आप कोविड-19 टेस्ट में पॉजिटिव नहीं आए लेकिन फिर भी आपमें एंटीबॉडीज मौजूद हैं तो इसका मतलब है कि आप वायरस से पहले ही एक्सपोज हो चुके हैं। हालांकि इस बात का अब भी पता नहीं चल पाया है कि एक बार एंटीबॉडीज बनने के बाद वह व्यक्ति वायरस के प्रति इम्यून हो जाता है या नहीं। 

एंटीबॉडी टेस्ट के प्रकार : अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक 2 तरह का एंटीबॉडी टेस्ट होता है- एक जिसमें बांधने वाले एंटीबॉडीज की खोज की जाती है और दूसरा- जिसमें एंटीबॉडीज को प्रभावहीन करने की खोज की जाती है। 

बाइंडिंग एंटीबॉडी टेस्ट : बाइंडिंग एंटीबॉडीज वो होती हैं जो वायरस या एंटीजेन से खुद को बांध लेती हैं लेकिन जरूरी नहीं कि वायरस को प्रभावहीन बनाए। बाइंडिंग एंटीबॉडीज की खोज के लिए सार्स-सीओवी-2 वायरस के शुद्ध प्रोटीन का इस्तेमाल किया जाता है। (सरंचना की बात करें तो सार्स-सीओवी-2 में जेनेटिक मटीरियल के तौर पर आरएनए होता है जो एक शेल के अंदर संकोचित होता है और बाहरी सतह पर स्पाइक प्रोटीन होते हैं- यही स्पाइक प्रोटीन, टेस्ट में इस्तेमाल होने वाले शुद्ध प्रोटीन का सोर्स है). चूंकि इन टेस्ट्स में लाइव वायरस का इस्तेमाल नहीं होता इसलिए इन्हें लैब में कम बायोसेफ्टी लेवल के साथ भी किया जा सकता है।

कोविड-19 के लिए किया जाने वाला एलिसा टेस्ट कोविड-19 एंटीबॉडीज की खोज के लिए किया जाने वाला सबसे कॉमन टेस्ट है। हालांकि एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए कुछ पॉइंट ऑफ केयर टेस्ट भी किए जाते हैं जो पार्श्विक बहाव की रचना पर आधारित है (प्रेगनेंसी टेस्ट एक तरह का पॉइंट ऑफ केयर टेस्ट है) और इसे मरीज के खून के एक ड्रॉप से भी किया जा सकता है।

न्यूट्रलाइजिंग या प्रभावहीन करने वाला एंटीबॉडी टेस्ट : ये वे एंटीबॉडीज होते हैं जो वायरस से खुद को बांधकर उसे प्रभावहीन करने की कोशिश करते हैं। अब तक अमेरिका के फूड एंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन एफडीए ने कोविड-19 के लिए किसी भी न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडी टेस्ट को मंजूरी नहीं दी है। इन टेस्ट में लाइव वायरस का इस्तेमाल होता है और इसलिए इस टेस्ट को करने के लिए खास लैब की जरूरत होती है ताकि वहां काम करने वाले लोगों को संक्रमण का खतरा न हो।

प्लाक रिडक्शन न्यूट्रलाइजेशन टेस्ट (पीआरएनटी) प्रभावहीन करने वाले न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडीज का पता लगाने में यूज होने वाला सबसे कॉमन टेस्ट है। इसमें वायरस की निश्चित मात्रा को मरीज के सीरम में मिलाया जाता है और उस सॉलूशन को माइक्रोटिटर प्लेट के ऊपर रखा जाता है जिसमें ग्रहनशील कोशिकाएं होती हैं। इसके बाद एंटीबॉडीज के असर को प्लेट में मौजूद प्लाक के साइज और नंबर के आधार पर नापा जाता है। माइक्रोटिटर प्लेट में प्लाक वह स्पष्ट जगह है जहां वायरस ने कोशिकाओं को संक्रमित किया होता है और बच्चे पैदा किए होते हैं। आमतौर पर सीरम सैंपल को पानी में डाइल्यूट किया जाता है और उसके बाद खास मात्रा वाले वायरस के ट्यूब में डाला जाता है। इसकी मदद से साफतौर पर प्लाक वाले हिस्से और कितने प्लांक हैं इसकी पहचान हो जाती है। अगर यहां पर एंटीबॉडीज की संख्या अपर्याप्त हो तो प्लाक उसमें मिल सकता है और फिर उसे गिनना मुश्किल होता है।

कोविड-19 एंटीबॉडी टेस्ट में किस तरह से एंटीबॉडीज की खोज होती है : इस टेस्ट में खासतौर पर IgG और IgM एंटीबॉडीज की वायरस एंटीजेन के खिलाफ खोज की जाती है। IgA एंटीबॉडीज की खोज इसलिए की जाती है ताकि श्लेष्मिक (म्यूकोसल) इम्यूनिटी का पता लगाया जा सके। ये एंटीबॉडीज खून के साथ ही म्यूकस वाली सतहें जैसे नाक में मौजूद होती हैं। हालांकि कोविड-19 में इस एंटीबॉडी के महत्व के बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं मिल पायी है।

सार्स-सीओवी-2 एंटीजेन : अब तक सार्स-सीओवी-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन, वायरस के रिसेप्टर को बांधने वाले डोमेन और बाहरी प्रोटीन कोट का एंटीजेन के तौर पर इस्तेमाल किया जा चुका है। कोविड-19 बीमारी फैलाने वाला वायरस इसी स्पाइक प्रोटीन का इस्तेमाल कर खुद को बांध लेता है और स्वस्थ कोशिकाओं का अंदर प्रवेश करता है। रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन स्पाइक प्रोटीन पर मौजूद एक खास तरह का क्षेत्र है जो खुद को मेहमान कोशिका की सतह पर मौजूद एसीई2 रिसेप्टर से बांध लेता है।

एंटीबॉडी टेस्ट के नतीजे : एंटीबॉडी टेस्ट के नतीजों का निम्नलिखित अर्थ हो सकता है:

  • IgM एंटीबॉडीज की मौजूदगी का आमतौर पर अर्थ होता है कि संक्रमण अब भी मौजूद है और व्यक्ति का इम्यून सिस्टम वायरस के खिलाफ सक्रिय लड़ाई लड़ रहा है जो अब भी जारी है। वहीं दूसरी तरफ IgG एंटीबॉडीज की मौजूदगी का मतलब है कि व्यक्ति को संक्रमण हुए काफी समय हो चुका है और वह व्यक्ति अब भी संक्रामक है या नहीं इसे जानने के लिए और ज्यादा टेस्ट करने की जरूरत है।
  • पॉजिटिव नतीजे : अगर किसी व्यक्ति के खून में दोनों IgG और IgM एंटीबॉडीज पायी जाती हैं तो इसका मतलब है कि संक्रमण अब भी सक्रिय है और करीब 14 दिन पहले शुरू हुआ है। इस तरह के मामले में व्यक्ति अब भी संक्रामक होता है और उसे आइसोलेट करके रखने की जरूरतो होती है। अगर किसी वजह से टेस्ट सिर्फ IgM एंटीबॉडीज के लिए पॉजिटिव आता है तो व्यक्ति को 14 दिन बाद फिर से टेस्ट करवाने की सलाह दी जाती है ताकि यह पता लगाया जा सके कि उनके शरीर में अब IgG एंटीबॉडीज बननी शुरू हुई या नहीं।
  • नेगेटिव नतीजे : अगर दोनों ही एंटीबॉडीज के लिए व्यक्ति के नतीजे नेगेटिव आते हैं तो इसका मतलब है कि वह व्यक्ति पहले कभी वायरस के संपर्क में नहीं आया या फिर उसके इम्यून सिस्टम ने अब तक वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बनाना शुरू नहीं किया है। 
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वैसे तो सेरोलॉजिकल टेस्ट गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह के नतीजे देता है- टेस्ट के जरिए पता चलता है कि एंटीजेन-एंटीबॉडी मौजूद है या नहीं और कितनी मात्रा में- और व्यक्ति की इम्यून प्रतिक्रिया कैसी है इसका भी असरदार तरीके से पता लगा सकता है। बावजूद इसके इन टेस्ट्स की कुछ परिसीमाएं भी हैं:

  • हमारा इम्यून सिस्टम किसी इंफेक्शन के खिलाफ कई तरह के एंटीबॉडीज का निर्माण करता है। इसलिए कोई एक व्यक्ति किसी एक तरह की एंटीबॉडी क्लोन का दूसरे व्यक्ति की तुलना में ज्यादा निर्माण करता है लेकिन फिर भी उसकी इम्यून प्रतिक्रिया असरदार होती है। इस वजह से टेस्ट की अनिश्चितता बढ़ जाती है।
  • रोगाणु के अलग-अलग स्ट्रेन या नस्ल के लिए भी सेरोलॉजी को बदलना पड़ता है- किस तरह के एंटीबॉडीज से वे खुद को बांध रहे हैं और कितनी मजबूती से।
  • किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीबॉडीज बनने में वक्त लगता है। इसलिए बीमारी की पहचान (डायग्नोसिस) करने के लिए एंटीबॉडी टेस्ट का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
Dr Rahul Gam

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संदर्भ

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